दोस्तों,

ऐसे समाचार आये दिन आते रहते है कि किसी विशेष समूह के लोगों का दमन होता रहा है, हाल कि पढ़ी-लिखी ऑनलाइन पीढ़ी में भी ऐसी चीजो का देखा जाना अपने आप में एक शर्मनाक बात है| हुआ है, उसका तो समज सकते है क्योंकि इतिहास गवाह है, किन्तु होता है इससे हम सहमत नहीं होते है क्योंकि इतनी पढ़ी लिखी पीढ़ी भी ऐसी चीजों को बढ़ावा देती है जिसका लाभ किसी और को मिलता है तो यहा दिल किसी और का दहला हैं | समाज के कइ व्यक्ति ऐसी  घटना से सहमत नहीं होते है परन्तु  सामाजिक तोर पर वह अपनी आवाज उठाना भी ठीक नही समजते  हैं |

आदर्श भरी बाते सभी को अच्छी लगती है  पर मूलतः जो समाज में बातें हो रही बाते है उसको स्वीकार करना भी बड़ी बात है,लेकिन कई  लोग हमदर्दी दिखाने से भी पीछे हट जाते है  |

बात है एक कूड़ा बीनने वाले साधारण व्यक्ति की, जो कि अपने परिवार के भूख कि पूर्ति करने के लिए कूड़ा बीनता था| वह गुजरात के अमरेली जिले के लिमडी के परनारा ग़ाव का रहने वाला था| परिवार कि परिस्थिति आर्थिक तौर पर  अच्छी न  होने के कारण उसे लिमडी से राजकोट शहर के शापर नाम के उद्योग नगरी में स्थानान्तरण करना पड़ा| शापर में गर्मियों के मौसम में 40 से 44 डिग्री कि धुप में भी वह अपनी रोजी-रोटी के लिए कूड़ा बीनने जाता था| शापर के स्थानान्तरण के कुछ दिनों बाद ही एक ऐसी घटना घटती है जिसमे  उस सामान्य से कूड़ा बीनने वाले व्यक्ति को अपनी ज़िन्दगी को अलविदा कहना पड़ा|

दरअसल, वह व्यक्ति अपने चाची और पत्नी संग शापर के रादडीया फेक्टरी के विस्तार में कूड़ा बिन रहे थे और कूड़ा बीनते-बीनते रादडीया फेक्टरी के पास पहुंचे| तभी इन कूड़ा बीनते लोगों को देख फेक्टरी में काम करने वाले व्यक्ति ने उन लोगों को बुलाया कि आप कूड़ा बीनते है तो हमारी थोड़ी मदद कर दीजिए| ऐसे करके उनको (कूड़ा बीननेवाला, उनकी पत्नी व् उनकी चाची) को अंदर बुलाया गया| फेक्टरी के अंदर लोहे का सामान पड़ा हुआ था| उस सामान को हटाने का उनको काम दिया गया| वह लोग कूड़ा बीनने वाले थे और अपनी भूख को मिटाने के लिए उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार किया और शर्त रखी कि इसके 150 रूपए लगेंगे|

अब दिल दहला देने वाली घटना घटती है, जिसकी सब निंदा करते है, क्योंकि यह मानवाधिकार को व् संविधान को ठेस पहुंचा ने वाली घटना है|

फेक्टरीवाले लोग उस कूड़ा बीननेवाले को धमकाते है और कहने लगते है कि यह काम तुम्हे करना ही पड़ेगा क्योंकि तुम निम्न वर्ग के व्यक्ति हो| तुम्हारे जीवन में यह निम्न काम करना ही लिखा गया है| कूड़ा बीनने वाले भी कहते है कि हमें इसका कुछ पैसा मिले तो हम यह काम करने के लिए तैयार है| ऐसे में गाली -गलौच शरु हो जाती है| बात-बात में कूड़े बीनने वाले के जाती पे गंदी गाली दी जाने लगी और उसको पीटने के लिए फेक्टरी के कुछ लोगों द्वारा बांध दिया जाता है|उसकी चाची का हाथ ऐसे कस के पकड़ा जाता है कि उसका ब्लाउज तक फट जाता है, और उन दोनों महिलाओं को  कह दिया जाता है कि तुम यहाँ से चले जाओ वरना तुम्हे भट्ठी में डाल दिया जाएगा| बाद में कूड़ा बीनने वाले को रस्से से बांध कर पिटा जाता है, और इस हालत में पिटा जाता है कि उसकी मौत हो जाती है|

        कहानी कैसी लगी?

बड़े खेद के साथ मैं यह बात कहता हूँ कि यह एक सत्य घटना है| कूड़ा बीननेवाले 30 वर्षीय युवक का नाम मुकेश वाणीया है, उनकी पत्नी का नाम जया है व् चाची का नाम सविता है|

यह बात हुई कूड़ा बीनने वालों के परिवार कि तरफ से, लेकिन जिन्होंने कानून अपने हाथ में लिया उन फेक्टरी वालों का कहना है कि वह लोग कूड़ा बीनते-बीनते रादडीया फेकटरी में पहुँच गए थे| उनको हमने पकड़ा और दूसरी बार ऐसी गलती ना करे इसलिए उनको सजा दी|

अब दोनों मुद्दों को समान नजरों से मद्दे नजर रखते हुए मंथन कीजिए कि यह अगर चोरी का मुद्दा था तो यह बात किसके पास जानी चाहिए थी? इस बदलते भारत में यह निम्न जाती या सवर्ण जाती का मानवीय जाती में परिवर्तन कब होगा? इस मुद्दों को ध्यान में लेते हुए कानून ने अपना फ़र्ज़ निभाया और इस घटना को अंजाम देने वाले उन सभी लोगों को  संविधान के अंतर्गत सजा दी| गुजरात सरकार ने भी इस घटना कि निंदा करके हमदर्दी जताते हुए पीड़ित परिवार को 8.25 लाख रूपया मुहैया करवाया| लेकिन सवाल यह है कि क्या एक व्यक्ति के जीवन की किंमत  सिर्फ 8.25 लाख से तोली जा सकती है? मुकेश का बड़ा भाई अहमदाबाद में राजगीर (मकान बनाने का काम करते) है| वह अपने मालिक के पास से 200 रूपये लेकर अहमदाबाद से निकलता है और पोस्टमोर्टम उसके आने के बाद करने को कहता है पर वह पहुँचता है तब तक पोस्टमोर्टम हो चूका होता है, ऐसा क्यों? कुछ आदर्श बाते अच्छी लगती है पर उसे लागू करना संभवतः नामुमकिन होता है| किन्तु इंसानियत का दृढ़ निश्चय क्या इतना कमजोर है कि वह इंसान को इंसानियत से नहीं उसकी जाती से पहचाने?

ये बाते जो भी हो वह मंथन का विषय है और इसे लागू करने में काफी समय लग जाता है| किन्तु ऐसी बात लागू करने में, किसी की अगवाई क्यों नजर नहीं आती? शायद राजनीति मजबूत हो इसी वजह से ऐसा करना संभव नहीं हो रहा है, किन्तु भारत में तो लोगों के द्वारा, लोगों के लिए और लोगों की सरकार चलती है सब चीजो का बटन हमारे वोट से है| ये बात क्यों हम भूल रहे है? यह वो देश है जिस में मर्दानी रानी अमर हो चुकी है, यह बिना खडग व् ढाल अंग्रेजो को भारत से भगाने वाले गाँधी कि भूमि है| ऐसी भूमि में कितने शूर पैदा हो चुके है, क्या हम सब शूर मिलकर एसी घिनौनी मानसिकता को नहीं फेंक सकते? निश्चय अभी भी हमारे हाथो में है, अगर अभी इस पर विचार नहीं किया गया तो भविष्य में ऐसे किस्से नजर आते ही रहेंगे और हम जाती व् धर्म के नाम पर बंटते चले ही जाएँगे, बंटते चले ही जाएँगे|

By Samir Parmar

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